Thursday, November 11, 2010

पिंजडे से बाहर।

पिंजडे से बाहर ।

जनम लिया इस जग में,रो-रोकर
क्या जाना में आगे रोना बाकी है ।
फिर भी हँसना सीख लिया-
चेहरे देखर आस-पास की ।।

मना किया जाना बाहर कहीं
मना किया कुछ करना ।
"नहीं नहीं "सुन-सुनकर रोई-
सचमुच बैठ गई दिल के अदंर ।।


कहने लगी,"लडकी है तू-
जाना तुझे पराए घर"
बैठी रही यही सोचकर-
कब तोडेगी,हे रब्बी दीवार ।।

आखिर आया वह दिन
साथ दी उमंगें रात-दिन
पहचानेगी 'वो 'मुझे ज़रूर
बैठी रही राहें ताककर।।

मिली है आज़ादी पिंजडे से
छोड दी त्रासदी जीवन से
सिखा दी वो मुझे, ज़िन्दगी-
हँसने का है,रोने का नहीं।।

जाना तुझको बहुत दूर
उडना तुझे गगन की ओर
साथ दूँगा मैं,हमसफर बनके
सजा दूँगा ,तेरा सिंदूर बनके।।

कविता
posted by LeenaSreenivasan(G.M.H.S.Nadayara)

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