पिंजडे से बाहर ।
जनम लिया इस जग में,रो-रोकर
क्या जाना में आगे रोना बाकी है ।
फिर भी हँसना सीख लिया-
चेहरे देखर आस-पास की ।।
मना किया जाना बाहर कहीं
मना किया कुछ करना ।
"नहीं नहीं "सुन-सुनकर रोई-
सचमुच बैठ गई दिल के अदंर ।।
कहने लगी,"लडकी है तू-
जाना तुझे पराए घर"
बैठी रही यही सोचकर-
कब तोडेगी,हे रब्बी दीवार ।।
आखिर आया वह दिन
साथ दी उमंगें रात-दिन
पहचानेगी 'वो 'मुझे ज़रूर
बैठी रही राहें ताककर।।
मिली है आज़ादी पिंजडे से
छोड दी त्रासदी जीवन से
सिखा दी वो मुझे, ज़िन्दगी-
हँसने का है,रोने का नहीं।।
जाना तुझको बहुत दूर
उडना तुझे गगन की ओर
साथ दूँगा मैं,हमसफर बनके
सजा दूँगा ,तेरा सिंदूर बनके।।
कविता
posted by LeenaSreenivasan(G.M.H.S.Nadayara)
No comments:
Post a Comment